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कोई नहीं है देखने वाला तो क्या हुआ
तेरी तरफ़ नहीं है उजाला तो क्या हुआ

चारों तरफ़ हवाओं में उस की महक तो है
मुरझा रही है साँस की माला तो क्या हुआ

बदले में तुझको दे तो गए भूक और प्यास
मुँह से जो तेरे छीना निवाला तो क्या हुआ

आँखों से पी रहा हूँ तिरे प्यार की शराब
गर छुट गया है हाथ से प्याला तो क्या हुआ

धरती को मेरी ज़ात से कुछ तो नमी मिली
फूटा है मेरे पाँव का छाला तो क्या हुआ

सारे जहाँ ने मुझपे लगाई हैं तोहमतें
तुमने भी मेरा नाम उछाला तो क्या हुआ

सर पर है माँ के प्यार का आँचल पड़ा हुआ
मुझ पर नहीं है कोई दुशाला तो क्या हुआ

मंचों पे चुटकुले हैं लतीफ़े हैं आज-कल
मंचों पे ना हैं पंत-निराला तो क्या हुआ

ऐ ज़िंदगी तू पास में बैठी हुई तो है
शीशे में तुझको गर नहीं ढाला तो क्या हुआ

आँखों के घर में आई नहीं रौशनी ‘कुँअर’
टूटा है फिर से नींद का ताला तो क्या हुआ

-डॉ. कुँअर बेचैन